Vikram or Betal ki 24 Kahani ( Ek Adbhut Katha)
Vikram or Betal ki 24 Kahani ( Ek Adbhut Katha). वह रात किसी राक्षसी के समान थी। श्मशान में यत्र-तत्र जलती हुई चिताएं ही मानो उस राक्षसी की आंखें थीं।
एक अद्भुत कथा (Ek Adbhut Kahani)
वह रात किसी राक्षसी के समान थी। श्मशान में यत्र-तत्र जलती हुई चिताएं ही मानो उस राक्षसी की आंखें थीं। ऐसी महाभयानक रात में राजा विक्रमादित्य फिर से शिंशपा-वृक्ष के नीचे पहुंचा और बेताल को नीचे उतार लिया। फिर वह उसे कंधे पर डालकर मौनभाव से अपने गंतव्य की ओर चल दिया। कुछ आगे चलकर बेताल ने पुनः मौन भंग किया- "राजन ! बार-बार की इस आवाजाही से मै तो बिल्कुल ऊब चुका हूं किंतु तुम पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। अब मैं तुमसे एक महाप्रश्न पूछता हूं, इसे सुनो।"
दक्षिणपथ में धर्मनाम का एक मांडलिक राजा राज करता था। वह राजा बहुत ही सद्गुणी था। उसके बहुत से गोत्रज (परिवारजन) थे। उसकी स्त्री का नाम चंद्रावती था, जो मालवा की रहने वाली थी और वहां के एक संभ्रान्त परिवार में पैदा हुआ थी। राजा को अपनी उस पत्नी से एक ही कन्या उत्पन्न हुई जिसका नाम लावण्यवती था। अपने नाम के अनुरूप ही लावण्यवती सचमुच ही मानो रूप का खजाना थी।
जब वह कन्या विवाह के योग्य हुई, तब राजा के गोत्रजों ने उसके विरुद्ध एक षड्यंत्र रचा। उन्होंने राज्य में फूट डाल दी और राजा धर्मनाम को सिंहासन से उतार दिया। वे उसके खून के प्यासे बन गए। एक रात राजा अपनी पत्नी और पुत्री सहित किसी प्रकार बचकर वहां से निकल भागा। वह अपने साथ बहुत ही उत्तम कोटि के कुछ रत्नों को भी ले जाने में कामयाब हो गया। राज्य से निकलकर राजा अपनी ससुराल मालवा के लिए चल पड़ा। पत्नी और पुत्री के साथ जाता हुआ जब वह विंध्याचल पर्वत के निकट पहुंचा तो रात हो गई। किसी प्रकार वह रात उन सबने उसी जंगल में काटी और भोर होते ही पुनः आगे चल पड़े।
वैभव और ऐश्वर्य में पले-बड़े होने के कारण उन्होंने कभी पैदल सफर नहीं किया था, अतः उनके पांव कांटों से छिल गए थे। इस तरह चलते-चलते वे एक भीलों के गांव में जा पहुंचे। उस गांव के भील चोर-लुटेरे थे। धन के लिए किसी की भी हत्या तक कर देना उनके लिए मामूली बात थी। वस्त्र और आभूषण पहनने वाले राजा को दूर से ही देखकर, वे उन्हें लूटने के लिए अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र हाथों में लिए उनकी ओर दौड़ पड़े।
उन्हें देखकर राजा धर्मनाम ने अपनी स्त्री और कन्या से कहा- "ये म्लेच्छ पहले तुम्हारे ही ऊपर आक्रमण करेंगे, अतः तुम दोनों तुरन्त वन में जाकर छिप जाओ।"
राजा के ऐसा कहने पर, भय के कारण रानी चंद्रावती अपनी कन्या को साथ लेकर तत्काल वन में चली गई। कुछ देर उपरान्त ही वे लुटेरे भील राजा के पास पहुंच गए और अपने अस्त्र-शस्त्रों से राजा पर टूट पड़े। राजा ने अपनी समस्त शक्ति से उनका मुकाबला किया। उसने अपने तीरों से अनेक लुटेरों को मार गिराया, पर अन्ततः लुटेरों ने उस पर सामूहिक रूप से आक्रमण किया और उसे मारकर उसके शरीर के समस्त आभूषण उतारकर ले गए।
दूर वन में छिपी हुई रानी और उसकी पुत्री ने यह दृश्य देखा तो प्राणों के भय से वह वहां से भाग निकलीं और दूर के घने जंगल में चली गई। उस जंगल में एक सरोवर के समीप वृक्ष के नीचे बैठकर वह दोनों विलाप करने लगीं। इसी बीच उस वन के निकट रहने वाला, घोड़े पर सवार कोई राजा आखेट करने के लिए अपने पुत्र के साथ उधर आ निकला। उस राजा का नाम था चंद्रसिंह और उसके पुत्र का नाम सिहपराक्रम था। धूल में उभरे हुए उन मां-बेटी के पदचिन्ह देखकर चंद्रसिंह ने अपने पुत्र से कहा- "हम दोनों इन सुन्दर और उत्तम रेखाओं वाले पद-चिन्हों का अनुसरण करते हुए आगे बढ़ते हैं। ये चिन्ह अवश्य ही दो महिलाओं के हैं। यदि वे स्त्रियां हमें मिल जाएं तो उनमें से एक को तुम ब्याह लेना।"
पिता की बात सुनकर उसका पुत्र सिंहपराक्रम बोला- "उन स्त्रियों से जिसके छोटे-छोटे पैर हैं, मैं उसी के साथ विवाह करूंगा। अवश्य ही वह स्त्री कम उम्रवाली है और मेरे योग्य है। दूसरी बड़े पैरों वाली से आप विवाह कर लेना।"
पुत्र की बात सुनकर उसका पिता बोला- "तुम यह कैसी बातें करते हो पुत्र । तुम्हारी माता को मरे अभी कुछ ही दिन तो बीते हैं। वैसी योग्य गृहणी को खोकर अब मुझे किसी और की कामना कैसे हो सकती है ?"
इस पर उसके पुत्र सिंहपराक्रम ने उत्तर दिया- "पिताजी, आप ऐसा न कहें। मैने जिस स्त्री के पदचिन्ह देखकर उसे अपने लिए पसंद किया है, उसे छोड़कर दूसरी स्त्री को आप अपनी भार्या अवश्य बनाएं, आपको मेरे प्राणों की सौगन्ध"। फिर दोनों, पैरों के निशान देखते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे।
जब वे दोनों विलाप करती हुई उन मां-बेटी के निकट पहुंचे तो दोनों स्त्रियां सहमकर चुप हो गई। उन्होंने उन बाप-बेटे को भी कोई लुटेरा ही समझा था। लेकिन जब राजा ने उन्हें अपना परिचय देकर निर्भय होने के लिए आश्वस्त किया, तब वे दोनों स्त्रियों को अपने घोड़े पर बिठाकर अपने महल ले आए। महल में पहुंचकर उन पिता-पुत्र में आपस में यह वार्तालाप हुआ कि अब उन स्त्रियों के साथ विधिपूर्वक विवाह कर लेना चाहिए। दिए गए वचन के अनुसार राजा चंद्रसिंह के पुत्र सिंहपराक्रम ने रानी चंद्रावती को अपनी पत्नी बनाया क्योंकि उसी के पैर छोटे थे, जबकि राजा चंद्रसिंह को उसकी बेटी लावण्यवती से विवाह करना पड़ा क्योंकि उसके पैर बड़े थे। इस प्रकार पैरों की गड़बड़ी से उन पिता-पुत्रों ने क्रमशः बेटी और माता से विवाह कर लिया। चंद्रावती अपनी ही बेटी की बहू बन गई। समय पाकर उन दोनों को पुत्र एवं कन्याएं उत्पन्न हुई और फिर उनके भी बेटी-बेटे हुए।
रात्रि के समय मार्ग में जाते हुए बेताल ने इस प्रकार यह कथा सुनाकर राजा विक्रमादित्य से पुनः पूछा- "राजन, यदि तुम जानते हो तो यह बतलाओ कि उन मां-बेटियों को, पुत्र एवं पिता के द्वारा क्रमशः जो सन्तानें पैदा हुई, उनका आपस में क्या संबंध हुआ ? यदि जानते हुए भी तुमने नहीं बतलाया, तो तुम्हें पहले कहा हुआ ही शाप लगेगा।"
यह सुनकर राजा विक्रमादित्य सोच में पड़ गया। उन्होंने बहुत सोचा-विचारा किंतु बेताल के उस प्रश्न का कोई भी उत्तर उनकी समझ में नहीं आया। अतः वह चुप्पी साधे मौन भाव से आगे बढ़ता रहा। मृत पुरुष के शरीर में प्रविष्ट और राजा के कंधे पर बैठा बेताल इस पर मन-ही-मन हंसा और सोचने लगा- 'इस महाप्रश्न का उत्तर इस राजा को मालूम नहीं है, फिर भी यह प्रसन्न है और सावधानीपूर्वक पैर रखता हुआ निरंतर आगे बढ़ रहा है। यह राजा बड़ा पराक्रमी है, इसलिए वंचित होने के योग्य नहीं है। इसके अतिरिक्त वह भिक्षु मेरे साथ जो चाल चल रहा है, वह इतने से ही चुप नहीं रहेगा। इसलिए मैं उस दुरात्मा को ही उपायपूर्वक वंचित करूंगा और उसकी सिद्धि इस राजा के लिए सुलभ कर दूंगा, क्योंकि भविष्य में इसका कल्याण होने वाला है।'
ऐसा सोचकर बेताल ने राजा से कहा- "राजन, इस भयानक रात में, इस श्मशान में बार-बार आते-जाते तुमने बहुत कष्ट उठाया है, फिर भी तुम अपने निश्चय से नही डिगे, तुम सुख पाने के योग्य हो। मैं तुम्हारे इस आश्चर्यजनक धैर्य से संतुष्ट हुआ। अतः अब तुम इस शव को ले जाओ, मैं इसमें से चला जाता हूं। लेकिन जाने से पहले तुम्हारी भलाई के लिए मैं जो तुमसे कहना चाहता हूं, उसे सुनो और उसके अनुसार ही कार्य करो।"
बेताल ने आगे कहा- "हे राजन! तुम जिस दुष्ट भिक्षु के लिए मनुष्य का यह शरीर लेकर जा रहे हो, वह आज इस शरीर में मेरा आह्वान करके पूजा करेगा। पूजा करने के बाद वह दुष्ट तुम्हारी ही बलि चढ़ाने की इच्छा से तुमसे कहेगा कि- 'भूमि पर पड़कर साष्टांग प्रणाम करो।' तब उस समय तुम उस भिक्षु से कहना 'पहले तुम करके दिखलाओ, फिर मैं वैसा ही करूंगा।' तत्पश्चात् जब वह भूमि में पड़कर प्रणाम करके तुम्हें दिखलाए, उसी समय तुम तलवार से उसका मस्तक काट देना। तब विद्याधरों का जो ऐश्वर्य वह प्राप्त करना चाहता है, वह तुम्हें मिल जाएगा। उसकी बलि देकर तुम पृथ्वी का भोग करोगे। ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हारी बलि चढ़ा देगा। मैंने इसी कारण तुम्हारे इस कार्य में इतनी देर तक विघ्न डाला था। जाओ, तुम्हें सफलता प्राप्त हो।" इतना कहकर राजा के कंधे पर लदे मृत शरीर से निकलकर बेताल चला गया।
बेताल की बातों से प्रसन्न हुए राजा विक्रमादित्य भी उस शव को लादे वट-वृक्ष की ओर चल पड़ा जहां उस भिक्षु ने उसे पहुंचने के लिए कहा था।
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