Vikram or Betal ki 22 Kahani ( Char Brahman Bhaiyon ki Katha)
Vikram or Betal ki 22 Kahani ( Char Brahman Bhaiyon ki Katha). राजा विक्रमादित्य ने फिर उस शिशपा-वृक्ष के निकट जाकर बेताल को नीचे उतारा और पहले की
Char Brahman Bhaiyon ki Kahani
राजा विक्रमादित्य ने फिर उस शिशपा-वृक्ष के निकट जाकर बेताल को नीचे उतारा और पहले की भांति उसे अपने कंधे पर लादकर चल पड़ा।
कुछ दूर चलने पर बेताल ने पुनः मौन भंग किया और कहा- "राजन। आप सज्जन और महापराक्रमी है और संसार का हर व्यक्ति सज्जन और पराक्रमी व्यक्ति का सम्मान करता है। आप परिश्रम भी बहुत कर रहे है अत परिश्रम को भुलाने के लिए मैं तुम्हें एक और नई कथा सुनाता हूं।"
प्राचीन काल में इस आर्यावर्त्त में कुसुमपुर नाम का एक नगर था। उस नगर के स्वामी धरणीवराह नाम के एक राजा थे। ब्राह्मण बहुल उनके राज्य में ब्राह्मणों को दान स्वरूप दिया गया, ब्रह्मस्थल नाम का एक गांव था।
उस गांव में विष्णुस्वामी नाम का एक ब्राह्मण रहता था। विष्णुस्वामी के चार पुत्र थे। जब उसके वे पुत्र वेदो का अध्ययन कर चुके तो उसी बीच विष्णुस्वामी और उसकी पत्नी का देहान्त हो गया।
माता-पिता के जीवित न रहने पर उन चारो भाइयों की आर्थिक स्थिति बहुत डांवाडोल हो गई क्योकि उनके सगे-संबंधियों ने उनका सब कुछ हडप कर लिया था। तब उन चारों ने आपस मे सलाह की कि "यहा अब हमारी गुजर-बसर नही हो सकती। अब तो हमें अपने नाना के यहां, ब्रह्मस्थल नाम के गांव में चले जाना चाहिए।"
ऐसा निश्चय करके, राह में मांगते-खाते वे बहुत दिनो मे अपने नाना के घर जा पहुंचे। वहां नाना के न रहने पर भी उनके मामाओं ने उन्हें आश्रय दिया। उनके यहां खाते-पीते और वेदों का अध्ययन और अभ्यास करते हुए वे रहने लगे।
समय बीतने लगा तो उनके मामाओं ने उनकी उपेक्षा करनी आरंभ कर दी। मामों से भी उपेक्षित उन चारों ने एक दिन पास मे विचार-विमर्श किया। उनमें से जो सबसे बड़ा भाई था, वह बोला "भाइयो, हम लोगों को ऐसी हालत मे क्या करना चाहिए ? यह सब तो विधाता के ऊपर निर्भर है क्योंकि मनुष्य के किए से तो यहां कभी कुछ नही हो सकता। आज उद्विग्न होकर घूमता हुआ जब मैं श्मशान पहुंचा तो वहा मैने एक मरे हुए पुरुष का शरीर देखा। उसे देखकर मैं उसकी दशा की सराहना करने लगा कि यह धन्य है, जो दुख का सारा भार उतारकर इस प्रकार विश्राम कर रहा है। ऐसा सोचकर मैने भी उसी समय मरने का निश्चय किया। मैं एक वृक्ष की डाली मे फंदा डालकर उससे लटक गया। मै अचेत तो हो गया किंतु मेरे प्राण नहीं निकले थे। इसी समय फंदा टूट गया और मैं भूमि पर गिर पड़ा। जब मुझे चेतना आई तो मैंने देखा कि कोई कृपालु पुरुष वस्त्र से शीघ्रतापूर्वक हवा करके मुझे सचेत करने का प्रयत्न कर रहा है।
"एक क्षण रुककर वह फिर बोला- 'उस व्यक्ति ने मुझसे कहा- 'अरे भाई, विद्वान होकर भी तुम किसके लिए इतना खेद कर रहे हो ? मनुष्य को उसके सुकर्मो से सुख और दुष्कर्मों से दुख मिलता है। अतः यदि तुम दुखों से घबरा गए हो तो सत्कर्म करो। तुम आत्महत्या करके नरक के दुख की कामना क्यों करते हो?' यह कहकर मुझे समझाकर वह व्यक्ति वहां से चला गया। मैं भी इस कारण मरने का इरादा छोड़कर यहां चला आया। स्पष्ट है कि विधाता की इच्छा न होने पर मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता। अतः अब मैं किसी तीर्थस्थान पर जाकर तपस्या करूंगा और इस प्रकार शरीर का त्याग करूंगा कि फिर मुझे निर्धनता का दुख न भोगना पड़े।"
बड़े भाई के ऐसा कहने पर उसके छोटे भाई उससे यह बोले- "आर्य, आप विद्वान होकर भी धन हीनता के कारण दुखी क्यों हो रहे हो ? क्या आप नहीं जानते कि धन तो शरद के मेघों की तरह चंचल होता है। दुर्जन की मित्रता, वेश्या और लक्ष्मी ये तीनों ही अंत में आंखें फेर लेती हैं। इनकी चाहे जितनी रखवाली की जाए, चाहे जितनी सावधानी रखी जाए, ये कभी किसी के होकर नहीं रहते। अतः मनस्वी पुरुष को यत्न करके कोई ऐसा गुण अर्जित करना चाहिए जो धन रूपी हिरण को बलपूर्वक बार-बार बांधकर ला सके।"
छोटे भाइयों की यह बातें सुनकर बड़े भाई ने शीघ्र ही धैर्य धारण करते हुए कहा- "तो फिर अर्जन करने योग्य कौन-सा गुण हो सकता है ?" बाद में, वे सभी सोच-विचार करके एक-दूसरे से कहने लगे "सारी दुनिया को छानकर हम लोग कोई विशेष ज्ञान अर्जित करेंगे।" ऐसा निश्चय करके और लौटकर मिलने का एक ठिकाना बताकर वे चारों, चार अलग-अलग दिशाओं में चले गए।
समय पाकर वे चारों निश्चित किये हुए ठिकाने पर आ मिले और एक दूसरे से यह बताने लगे कि किसने क्या सीखा है।
उनमें से एक ने कहा- "मैंने तो ऐसी विद्या सीखी है कि मुझे जिस किसी प्राणी की हड्डी का एक टुकड़ा मिल जाए, तो मैं अपनी विद्या से क्षण-भर में उसमें उस प्राणी के योग्य मांस तैयार कर दूं।"
इस पर दूसरे ने कहा- "मैं उसके अनुकुल चमड़ी और रोम तैयार कर सकता हूं।" इस पर तीसरे ने कहा- "चमड़ी, मांस और रोएं हो जाने पर मैं उस प्राणी के अवयव और आकृति बना सकता हूं।"
अब चौथे की बारी थी, उसने कहा- "अवयव और आकृति बन जाने पर मै उस प्राणी में प्राण का संचार कर देना जानता हूं।"
इस प्रकार, उन चारों भाइयों ने जब अपनी-अपनी विद्या के प्रभाव का वर्णन कर लिया, तब वे उसकी सिद्धि के लिए हड्डी का कोई टुकड़ा ढूंढ़ने के लिए वन में गए।
सयोग से उन्हें वहां सिंह की एक टूटी हड्डी का टुकड़ा मिल गया। उसके बारे में बिना कुछ जाने-सुने उन्होंने उसे उठा लिया।
तब एक ने उस हड्डी में उसके योग्य मांस बना दिया। दूसरे ने उसमें उसके अनुकूल चमड़ी और रोम तैयार कर दिए। तीसरे ने उसके सारे अंग ज्यों के त्यों बना दिए और चौथे ने उसमें प्राण का संचार कर दिया।
अनन्तर, भयानक दिखने वाला, भयानक मुख और तीखे नखों के अंकुश वाला, वह सिंह उठ खड़ा हुआ।
उसने झपटकर अपने चारों ब्राह्मणों को मार डाला और अपना पेट भरकर, तृप्त होकर वन में चला गया। इस प्रकार वे ब्राह्मण सिंह को जीवित करने की गलती के कारण मारे गए। भला दुष्ट प्राणी को जगाकर कौन मनुष्य स्वयं सुखी होता है ?
यदि विधाता वाम होता है, यो यत्नपूर्वक सीखे हुए गुण भी सुखकर नहीं होते बल्कि दुख का कारण बन जाते हैं। पौरुष का वृक्ष तभी फल देता है, जब भाग्य-रूपी उसकी जड़ विकार रहित (अनुकूल) हो। वह नीति के थावले में स्थित हो और ज्ञान के जल से सींचा गया हो।
रात में मार्ग में चलते हुए राजा विक्रमादित्य के कंधे पर बैठे हुए बेताल ने उसको यह कथा सुनाकर पूछा- "राजन, अब यह बतलाओ कि उन चारों में से सिंह को बनाने का वास्तविक अपराध किसका था ? यदि जानते हुए भी तुम नहीं बतलाओगे, तो पहले कहा हुआ शाप तुम पर पड़ेगा।"
बेताल की बात सुनकर राजा ने सोचा कि 'बेताल मेरा मौन तुड़वाकर फिर चला जाना चाहता है तो चला जाए, मैं लौटकर फिर इसे पकड़ लाऊंगा।' मन-ही-मन ऐसा सोचकर उसने बेताल से कहा- "बेताल, जिस ब्राह्मण ने उस सिंह को प्राणदान दिया, वही उन चारों में से इस पाप का भागी है। बिना यह जाने कि यह कौन-सा प्राणी है, उन्होंने अपनी विद्या से चमड़ा, मांस, रोम और दूसरे अंग दिए, उनका दोष इस कारण नहीं है कि उन्हें वास्तविकता का ज्ञान नहीं था किंतु जिसने सिंह का आकार देखकर भी अपनी विद्या का प्रभाव दिखाने की उत्कंठा से उसमें प्राण डाले, वस्तुतः ब्रह्महत्या उसी ने की।"
उस मायावी बेताल-श्रेष्ठ ने जब राजा की यह बातें सुनीं, तब वह उसके कंधे से उतरकर फिर अपनी जगह चला गया। बेताल को पकड़ने के लिए कटिबद्ध राजा भी पहले की भांति उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे-पीछे चल पड़ा ।
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