Vikram or Betal ki 20 Kahani (Raja or Brahman Putr ki Katha)

Vikram or Betal ki 20 Kahani (Raja or Brahman Putr ki Katha). राजा विक्रमादित्य ने शिंशपा-वृक्ष के नीचे जाकर पुनः बेताल को अपने कंधे पर उठाया और अपने

 

Vikram or Betal ki 20 Kahani

राजा और ब्राह्मण पुत्र की कथा (Raja or Brahman Putr ki Katha)

राजा विक्रमादित्य ने शिंशपा-वृक्ष के नीचे जाकर पुनः बेताल को अपने कंधे पर उठाया और अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा।

मार्ग में बेताल ने पुनः राजा से कहा- "राजन! यह तुम्हारा कैसा दृढ़ निश्चय है ? जाकर राज-पाठ का सुख भोगो। तुम मुझे जो उस दुष्ट भिक्षु के पास ले जा रहे हो, यह उचित नहीं है। किन्तु यदि तुम्हारा ऐसा ही आग्रह है तो मेरी यह कथा सुन लो।"

आर्यावर्त्त में अपने नाम को सार्थक करने वाला चित्रकूट नाम का एक नगर है। वहां के लोग वर्ण-व्यवस्था की सीमा का उल्लंघन नहीं करते, अर्थात् सभी वर्षों के लोग अपनी मर्यादा के भीतर रहते हुए ही अपने-अपने कार्य करते हैं।

उस नगर में चंद्रावलोक नाम का एक राजा राज्य करता था। वह राजा बहुत धीर-वीर, गंभीर एवं एक महान योद्धा था। उसकी शूरवीरता की कीर्ति दूर-दूर तक फैली हुई थी। लेकिन जैसा कि कहा गया है, हर व्यक्ति को अपनी समस्त इच्छित वस्तुएं कभी नहीं मिल पातीं। इसी प्रकार समस्त संपत्तियों के होते हुए भी वह राजा चंद्रावलोक इस बात से बहुत दुखी रहता था कि उसे अपनी पसंद के अनुसार पत्नी नहीं मिली थी।

एक दिन वह अपने मन का उद्वेग मिटाने के लिए घोड़े पर सवार होकर अपने अनुचरों के साथ वन में शिकार खेलने गया। वहां उसने कई दुर्दात हिंसक पशुओं का शिकार किया। एक सिंह का शिकार करने की इच्छा से वह अकेला ही उस विकट वन में घुस गया। वहां उसने एक हृष्ट-पुष्ट एवं कद्दावर सिंह को देखा तो लगा जैसे उसका लक्ष्य उसे मिल गया हो। उसने सिंह की ओर कई अचूक तीर छोड़े। उनमें से एक तीर सिंह को जा लगा और वह घबराकर घने जंगल की ओर भाग चला गया। राजा ने भी अपने घोड़े की एड़ लगाई ताकि वह जल्दी से उस सिंह के पास पहुंचकर उसका वध कर सके। किंतु एड़ कुछ ज्यादा ही लग गई। उसका घोड़ा राजा के पांव की एड़ एवं चाबुक की फटकार सुनकर बेहद उत्तेजित हो उठा। सम और विषम भूमि का ध्यान छोड़कर वह वायु-वेग जैसी तीव्रता से दौड़ता हुआ राजा को वहां से दस योजन दूर एक दूसरे प्रदेश में ले आया। वहां पहुंचकर जब घोड़ा रुका, तब राजा को दिशा-भ्रम हो गया। वह किसी प्रकार घोड़े से उतरा और सही दिशा पाने के लिए इधर-उधर भटकने लगा। तभी उसकी निगाह अपने से कुछ आगे एक विशाल सरोवर पर पड़ी। उस सरोवर में कमल खिले हुए थे और भांति-भांति के जलचर उसमें तैरते दिखाई दे रहे थे।

सरोवर के किनारे पहुंचकर राजा ने अपने घोड़े की जीन खोल दी। पहले उसने घोड़े को पानी पिलाया और खुला छोड़ दिया ताकि वहा उगी हरी-भरी दूब खाकर वह अपना पेट भर सके। फिर स्वयं स्नान करके जल पिया। थकावट दूर होने पर वह उस रमणीक स्थान में इधर-उधर नजर डालने लगा।

तभी उसकी निगाह एक अशोक-वृक्ष के नीचे अपनी सखी के साथ बैठी एक मुनि-कन्या पर पड़ी। वह फूलों के गहने एवं वल्कल वस्त्र पहने हुए थी। प्राकृतिक श्रृंगार करने से वह बहुत मनोरम प्रतीत हो रही थी। राजा उसके रूप को देखकर मोहित हो गया। उसने मन में सोचा 'अरे कौन है यह ? क्या यह कोई दूसरी सावित्री है जो सरोवर में स्नान करने आई हुई है या शिव की गोद में छूटी पार्वती है जो फिर भगवान शिव को पाने के लिए तपस्या करने आई है? अथवा यह दिन में अस्त हुए चंद्रमा की कान्ति है, जिसने व्रत धारण कर रखा है। तो मैं धीरे-धीरे इसके पास जाकर वरदान प्राप्त करूं।'

ऐसा सोचकर वह राजा उस कन्या के पास पहुंचा। उस कन्या ने भी जब राजा को अपने निकट आते देखा तो उसकी आंखों में चमक आ गई। फूलों की माला गूंथते उसके हाथ सहसा ही रुक गए। वह सोचने लगी- 'ऐसे विकट वन में आने वाला यह पुरुष कौन है? कोई विद्याधर है या कोई सिद्ध ? इसका रूप तो मेरी आंखों को चकाचौंध किए दे रहा है।'

मन-ही-मन ऐसा सोचकर लज्जा के कारण तिरछी नजरों से देखती हुई, वह उठ खड़ी हुई। यद्यपि उसके पांव जकड़-से गए थे तथापि वह जाने को उद्यत हुई। तब चतुर और विनम्र राजा उसके पास पहुंचा और बोला- "सुन्दरी ! जो व्यक्ति दूर से आया है, जिसे तुमने पहली बार देखा है और जो तुम्हारा दर्शन मात्र चाहता है, उसके स्वागत-सत्कार का तुम आश्रम वासियों का यह कैसा ढग है कि तुम उससे दूर भागी जा रही हो ?"

राजा के ऐसा कहने पर उस कन्या की सखी ने, जो राजा के समान ही चतुर थी, राजा को वहां बिठाया और उसका आतिथ्य सत्कार किया। उत्सुक राजा ने विनम्र स्वर में पूछा- "भद्रे ! तुम्हारी इस सखी ने किस पुण्यवान वश को अलंकृत किया है ? इसके नाम के वे कौन से अक्षर हैं, जो कानों में अमृत उड़ेलते हैं? और इस निर्जन वन में, पुष्प के समान कोमल अपने शरीर को तपस्वियों जैसी चर्या से क्यों कष्ट दे रही हैं?"

राजा की यह बातें सुनकर उसकी सखी ने उत्तर दिया- "श्रीमंत ! यह महर्षि कण्व की पुत्री इंदीवर प्रभा है। यह आश्रम में ही पाली-पोसी गई है। इसकी माता स्वर्ग की अप्सरा मेनका है। पिता की आज्ञा से यह इस सरोवर पर स्नान करने के लिए आई है। इसके पिता का आश्रम यहां से अधिक दूर नहीं है।"

राजा यह बातें सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और घोड़े पर सवार होकर उस कन्या का हाथ मांगने के लिए कण्व ऋषि के आश्रम में पहुंचा।

दहा पहुंचकर राजा ने मुनि के चरणों की वंदना की। मुनि ने भी उसका यथोचित स्वागत-सत्कार किया। उसे विश्राम करने के लिए उचित स्थान दिया।

जब राजा विश्राम कर चुका तो मुनि ने उससे कहा- "वत्स चंद्रावलोक ! तुम मेरी एक बात ध्यानपूर्वक सुनो। इस संसार में प्राणियों को मृत्यु से जैसा भय है, उसे तुम भली-भांति जानते हो, फिर भी तुम अकारण ही इन बेचारे मृगों की हत्या क्यों करते हो ? विधाता ने क्षत्रियों का निर्माण तो दुष्टजनों से सज्जनों की रक्षा हेतु ही किया है अतः तुम धर्मपूर्वक राजसुख का भोग करो। हे राजन! तुम स्वयं ही सोचो कि निर्बल निरीह पशुओं का वध करने से आखिर लाभ ही क्या है ? हे राजा चंद्रावलोक ! क्या तुमने राजा पांडु का वृत्तांत नहीं सुना जिन्हें इसी शौक के कारण शापवश अपने प्राण त्यागने पड़े थे। इसीलिए मैं तुम्हें समझ रहा हूं कि मृगया (आखेट) के बहाने पर निरीह पशुओं का शिकार करना तुरंत बंद कर दो।"

मुनि के बार-बारे ऐसा समझाने का राजा के मन पर भारी प्रभाव पड़ा। उसने मुनि से कहा- "हे मुनिश्रेष्ठ। आज से पहले किसी ने मुझे इस प्रकार समझाने की चेष्टा नहीं की थी इसीलिए अज्ञानवश मैं ऐसा करता रहा। किंतु मैं वचन देता हूं कि आज के बाद फिर कभी मृगया करने का विचार मन में नही लाऊंगा। आज के बाद मेरी ओर से सभी वन-प्राणी अभय हैं।"

यह सुनकर मुनि ने कहा- "राजन ! तुमने वन-प्राणियों को अभयदान दिया, इससे मैं बहुत संतुष्ट हुआ हूं। अतः तुम मुझसे कोई इच्छित वर मांगो।"

मुनि के ऐसा कहने पर समय को जानने वाले राजा चंद्रावलोक ने कहा- "हे मुनिवर ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो आप अपनी कन्या इंदीवर प्रभा को मुझे दे दें।"

राजा के इस प्रकार याचना करने पर मुनि ने अपनी वह कन्या राजा को दे दी, जिसका जन्म एक अप्सरा की कोख से हुआ था और जो सिर्फ राजा के ही योग्य थी।

अनन्तर, उसके साथ विवाह करके राजा वहां से चलने को तैयार हुआ। आश्रम के समस्त मुनिकुमार आंखों में अश्रु लिए उन्हें आश्रम की सीमा तक पहुंचा आए।

जब राजा ने मुनि कण्व और उनके शिष्यों से विदा ली, तब सूर्यास्त होने को ही था। मार्ग में चलते हुए उन्हें रात्रि हो गई लेकिन राजा फिर भी चलता ही रहा।

एक स्थान पर रुककर राजा ने मार्ग में एक पीपल का वृक्ष देखा। तब राजा ने सोचा कि रात्रि मे वही विश्राम करना चाहिए। यही सोचकर वह वहीं घोड़े से उतर पड़ा। उस रात वह राजा वहां उस मुनिकन्या के साथ पुष्य शय्या पर सोया ।

सुबह जब वह अपने नगर की ओर चलने को हुआ तो अचानक एक ब्रह्मराक्षस से उसका सामना हो गया। उस राक्षस का विकराल शरीर देखकर राजा की पत्नी, वह मुनिकन्या सिहर उठी। वह राक्षस काजल के समान काला था और कालमेघ के समान प्रतीत होता था। उसने अंतड़ियों की माला पहन रखी थी। उस समय वह किसी मनुष्य का मांस खा रहा था और उसकी खोपड़ी का रक्त पी रहा था। क्रोध के कारण उसके मुख से अग्नि-सी निकल रही थी। उसकी दाढ़ें बड़ी भयानक थीं।

प्रचंड अट्टहास करके, राजा का तिरस्कार करते हुए वह बोला- "अरे नीच, मैं ज्वालामुखी नाम का राक्षस हू। पीपल का वह वृक्ष मेरा निवास स्थान है। देवता भी इसकी अवमानना नहीं कर सकते। मैं रात को जब घूमने-फिरने गया, तभी तूने यहां रात बिताई। अब तू इस अविनय का फल भोग। अरे दुराचारी, वासना से तेरी सुध-बुध जाती रही है। मैं तेरा हृदय निकालकर खाऊंगा और तेरा रुधिर पी जाऊंगा।"

राजा ने ब्रह्मराक्षस की बातें सुनीं। ब्रह्मराक्षस बड़ा भयानक था। राजा ने महसूस किया कि उसे मार डालना किसी भी प्रकार संभव नहीं है, अतः उसने विनयपूर्वक कहा- "अनजाने में मुझसे जो अपराध हुआ है, आप उसे क्षमा कर दें। मैं आपके आश्रय में आया हुआ अतिथि हूं, आपकी शरण में हूं। मैं आपको मनचाहा आखेट ला दूंगा जिससे आपकी तृप्ति हो जाएगी। अतः क्रोध त्यागकर आप प्रसन्न हों।"

राजा की बातें सुनकर राक्षस कुछ शांत हुआ और उससे बोला- "अगर तुम सात दिनों के अंदर मुझे किसी ऐसे ब्राह्मण-पुत्र की भेंट लाकर दो जो सात वर्ष का होने पर भी बड़ा वीर हो, विवेकी हो और अपनी इच्छा से तुम्हारे लिए अपने को दे सके और जब वह मारा जाए तो भूमि पर डालकर उसकी माता उसके हाथ और पिता उसके पांव मजबूती से पकड़े रहें तथा तलवार के प्रहार से तुम्हीं उसे मारो तो मै तुम्हारे इस अपराध को क्षमा कर दूंगा, नही तो राजन मैं शीघ्र ही तुम्हें और तुम्हारे लश्कर को मार डालूंगा।"

प्राण जाने के भय से राजा ने तुरंत उसकी शर्त स्वीकार कर ली। तब वह ब्रह्मराक्षस तत्काल वहां से अन्तर्ध्यान हो गया।

राजा अपनी पत्नी को लिए घोड़े पर सावर होकर आगे चल दिया लेकिन उसका मन बहुत उदास था। वह सोचने लगा- "मैं भी कैसा पागल हूं जो उस ब्रह्मराक्षस की शर्त मान ली। भला वैसा उपहार मुझे मिलेगा भी कहां? मैंने प्राण जाने के भय से व्यर्थ ही उस राक्षस की शर्त स्वीकार की। इससे तो बेहतर था कि वह मुझे ही अपना आहार बना लेता। अब मैं अपने नगर को चलूं और देखूं कि होनहार क्या है ?'

राजा ऐसा ही कुछ सोचता जा रहा था कि उसकी सेना उसे खोजती हुई वहां पहुंच गई। तब वह अपनी सेना व अपनी पली के साथ अपने नगर चित्रकूट में आया। राजा को उसके अनुकूल पत्नी मिली है, यह जानकर राजधानी में उत्सव मनाया गया लेकिन मन का दुख मन में ही दबाए हुए राजा ने बाकी दिन बिता दिया।

अगले दिन एकान्त में उसने अपने मंत्रियों से सारा वृत्तांत कह सुनाया।

सुनकर उनमें से सुमति नामक एक मंत्री ने कहा- "राजन, आप चिंता न करें, मै वैसा ही उपहार खोजकर ला दूंगा क्योकि यह धरती अनेक आश्चर्यो से भरी पड़ी है।"

राजा को इस प्रकार आश्वासन देकर उस मंत्री ने शीघ्र ही सात वर्ष की उम्र वाले एक बालक की मूर्ति बनवाई। उसने मूर्ति को रत्न से सजाकर एक पालकी में बिठा दिया। फिर वह पालकी इस घोषणा के साथ अनेक नगरी, गांवों में जहां-तहां घुमाई गई- 'सात वर्ष का एक ब्राह्मण पुत्र, जो समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए अपनी इच्छा से अपना शरीर एक ब्रह्मराक्षस को सौपेगा और इस कार्य में वह न केवल अपने माता-पिता की अनुमति ही ले लेगा, बल्कि जब वह मारा जाएगाः तब स्वयं उसके माता-पिता उसके हाथ-पैर पकड़े रहेंगे। अपने माता-पिता की भलाई चाहने वाले ऐसे बालक को राजा सौ गांवों के साथ यह सोने और रत्नों से जड़ी मूर्ति भी दे देंगे।'

इस प्रकार जब बालक की वह मूर्ति घुमाई जा रही थी, तब एक ब्राह्मण-पुत्र ने यह घोषणा सुनी। वह बालक बड़ा वीर और अद्भुत आकृति वाला था। पूर्वजन्म के अभ्यास से वह बचपन से ही सदा परोपकार में लगा रहता था। ऐसा जान पड़ता था मानो प्रजा के पुण्य-फल ने ही उसके रूप में शरीर धारण कर रखा हो। ढिंढोरा पीटने वालों के पास जाकर उसने कहा- "प्रजा के हित में मैं अपने को अर्पित करूंगा। मै अपने माता-पिता को समझाकर अभी आता हूं।"

उसकी यह बातें सुनकर ढिंढोरा पीटने वाले प्रसन्न हो गए। उन्होंने उसे अनुमति दे दी। घर जाकर बालक ने हाथ जोड़कर अपने माता-पिता से कहा- "समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए मैं अपना यह नश्वर शरीर दे रहा हूं। अतः आप लोग मुझे आज्ञा दें और इस प्रकार अपनी दरिद्रता का भी अंत करें। इसके लिए यहां के राजा सौ गांवों सहित सोने और रत्नों वाली मेरी यह प्रतिकृति (मूर्ति) मुझे देंगे, जिसे मैं आप लोगों को सौंप दूंगा। हे पिताश्री, तब मैं आप लोगों से भी उऋण हो जाऊंगा और पराया कार्य भी सिद्ध कर सकूंगा। दरिद्रता से छुटकारा पाकर आप भी अनेक पुत्र प्राप्त कर सकेंगे।"

पुत्र की यह बातें सुनकर उसके माता-पिता ने कहा- "बेटा! क्या तू पागल हो है जो ऐसी बहकी-बहकी बातें कह रहा है? भला धन के लिए कौन अपने पुत्र गया की हत्या करना चाहेगा और कौन बालक अपना शरीर देना चाहेगा ?"

"माता-पिता की यह बातें सुनकर उस बालक ने फिर कहा- "पिताश्री, न तो मेरी बुद्धि नष्ट हुई है और न ही मैं कोई प्रलाप कर रहा हूं। अतः आप मेरी अर्थयुक्त बातें सुनिए। मानव का यह शरीर अपवित्र वस्तुओं से भरा है। जन्म से ही यह जुगुप्सित (व्याधियों का घर) है। अतः शीघ्र ही इसे नष्ट हो जाना है। इसलिए बुद्धिमान लोगों का कहना है कि इस क्षणभंगुर शरीर से संसार में जितना भी पुण्य उपार्जित किया जा सके, वही सार वस्तु है। हे पिताश्री समस्त प्राणियों का उपकार करने से बड़ा और कौन-सा पुण्य हो सकता है? और उसमें भी अगर माता-पिता की भक्ति हो तो देह-धारण करने का अधिक फल और क्या होगा ?" 

इस तरह की बातें कहकर उस दृढ़प्रतिज्ञ बालक ने शोक करते हुए अपने माता-पिता से अपनी मनचाही बात स्वीकार करा ली। फिर वह राजा के सेवकों के पास गया और वह सुवर्णमूर्ति तथा उसके साथ सौ गांवों का दानपत्र लाकर अपने माता-पिता को दे दिया। इसके पश्चात् उन राजसेवकों को आगे करके अपने माता-पिता के साथ वह शीघ्रतापूर्वक राजा के साथ चित्रकूट की ओर चल पड़ा।

चित्रकूट में जब राजा चंद्रावलोक ने अखंडित तेज वाले उस बालक को देखा, तब वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने फूलों और चन्दन के लेप से बालक को सजाया और उसे हाथी की पीठ पर बैठाकर, उसके माता-पिता के साथ उस ब्रह्मराक्षस के स्थान पर ले गया।

उस पीपल के वृक्ष के निकट बेदी बनाकर राजा के पुरोहित ने विधिपूर्वक जैसे ही अग्नि में आहुति डाली, त्योंही अट्टहास करता हुआ, मंत्र पढ़ता हुआ, वह ब्रह्मराक्षस प्रकट हुआ। लाल रंग की मदिरा पीने के कारण उन्मत्त होकर वह झूम रहा था, जम्हाइयां ले रहा था और तेजी से सांसें छोड़ रहा था। उसकी आंखें जल रही थीं, मुख से ज्वाला निकल रही थी और उसके शरीर की छाया से दिशाओं में अधकार-सा फैला प्रतीत होने लगा था।

राजा चद्रावलोक ने उसे देखकर नम्रतापूर्वक कहा- "भगवन् आज मेरी प्रतिज्ञा का सातवा दिन है। अपने वचन के अनुसार मैं यह मानव उपहार आपके लिए लाया हू। अतः आप प्रसन्न होकर विधिपूर्वक उसे ग्रहण करें।"

राजा के इस प्रकार निवेदन करने पर ब्रह्मराक्षस ने अपनी जीभ से होंठों के किनारों को चाटते हुए उस ब्राह्मण ने बालक की ओर देखा। यह देखकर भी वह बालक तनिक भी नहीं डरा बल्कि यही सोचने लगा कि 'इस प्रकार अपने शरीर का दान करके मैंने जो पुण्य अर्जित किया है, उससे मुझे ऐसा स्वर्ग अथवा मोक्ष नहीं मिलना चाहिए जिससे दूसरों का उपकार न होता हो, बल्कि जन्म-जन्मांतर में मेरा यह शरीर परोपकार के काम में ही आए।' ज्योंही ही उसने मन में यह बातें सोचीं, त्योंही क्षण भर में फूल बरसाते हुए देवसमूह के विमानों से आकाश भर गया।

अनन्तर, उस बालक को ब्रह्मराक्षस के सम्मुख लाया गया। मां ने उसके हाथ पकड़े और पिता ने पैर। इसके बाद ज्योंही राजा तलवार उठाकर उसे मारने चला, त्योंही उस बालक ने ऐसा अट्टहास किया कि ब्रह्मराक्षस सहित सब लोग विस्मय में पड़ गए। अपना-अपना काम छोडकर हाथ जोड़कर वे उस बालक का मुंह देखने लगे।

इस प्रकार, यह विचित्र और सरस कथा सुनाकर बेताल ने फिर राजा विक्रमादित्य से पूछा- "राजन! अब तुम मेरे इस प्रश्न का उत्तर दो कि प्राणान्त के ऐसे समय में भी वह बालक क्यों हंसा था? मुझे इस बात का बहुत कौतूहल है। जानते हुए भी यदि तुम इसका कारण नहीं बताओगे तो तुम्हारा सिर अनेक टुकड़ों में खंड-खंड होकर बिखर जाएगा।" 

बेताल की यह बात सुनकर राजा ने कुछ इस प्रकार उसका निराकरण किया- "हे बेताल ! जो प्राणी दुर्बल होता है, वह भय के उपस्थित होने पर अपने प्राणों की रक्षा के लिए अपने माता-पिता को पुकारता है। उनके न होने पर राजा को पुकारता है क्योंकि आर्तजनों की रक्षा के लिए ही तो राजा बनाए जाते हैं। यदि उसे राजा का भी सहारा नहीं मिलता तो फिर वह अपने कुलदेवता का स्मरण करता है। उस बालक के तो सभी सहायक वहां उपस्थित थे लेकिन वे सब-के-सब प्रतिकूल हो गए थे। माता-पिता ने धन के लोभ में उस बालक के हाथ-पैर पकड़ रखे थे। राजा अपने प्राणों की रक्षा के लिए स्वयं उसका वध करने को उद्यत था और वहां देवता के रूप में जो ब्रह्मराक्षस था, वही उसका भक्षक था। जो शरीर नाशवान है, जिसका अंत कड़वा है तथा जो अधिकाधिक जर्जर है, उसके लिए भी उन मूढ़मति वाले लोगों की ऐसी विडम्बना देखकर उसे आश्चर्य हुआ। जिन शरीरों में ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र और शंकर का निवास होता है, वे भी अवश्य नष्ट हो जाते हैं और उसी शरीर को स्थिर बनाए रखने की इन सबमें कैसी विचित्र वासना है! वह बालक उन लोगों की देह-ममता की यह विचित्रता देखकर अचरज में पड़ गया और अपनी अभिलाषा को पूर्ण जानकर प्रसन्न हुआ और इसी आश्चर्य व प्रसन्नता से वह हंस पड़ा था।"

राजा विक्रमादित्य जब ऐसा कहकर चुप हो गए, तब वह बेताल अपनी माया के बल से विक्रमादित्य के कंधे से गायब होकर फिर अपनी जगह पर जा पहुंचा। राजा भी बिना आगा-पीछा देखे शीघ्रतापूर्वक पुनः उसके पीछे-पीछे चल पड़ा। बड़े लोगों का हृदय समुद्र के समान होता है, उसे किसी भी तरह से क्षुब्ध नहीं किया जा सकता।